रेशा रेशा ख़्वाब

ख्व़ाहिश थी तुमसे रू-ब-रू दो बात कर सकूँ
मुझसे तो जब मिले तुम एक भीड़ में मिले।

मुझको ना हम-नफ़स ना कोई हम-नवा मिला
कहने को हमसफ़र तेरे जैसे कई मिले।

माज़ी के दरीचों से उस पार जो देखा मैंने
रेशा-रेशा ख़्वाब ही बस ख़ाक में लिपटे मिले।

मुझको मेरे हबीब ने बख्शी वो सियाह रात
जिस रात के सिरे मुझे अब तक नहीं मिले।

मंज़र है ये कैसा के जहां तक नज़र गयी
गलियाँ मिलीं वीरां मुझे सूने चमन मिले।

आता यकीं न था के शहर ही उजड़ गया
देखा तो कितने घर मुझे ओढ़े कफ़न मिले।

© गगन दीप