मेरे चंद अशआर - 1

ख़यालों के झुरमुट में, एक शक्ल फिर उभर आई,
देखा जो मैंने दूर तक, उफ़क़ पे वो नज़र आई!

डूब कर देखा, जो उसकी नीम-बाज़ आँखों में,
कोई खो गया नशे में, किसी को ज़िंदगी नज़र आई!

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अक़्स जो देखा डर के मैंने तोड़ डाला आईना,
कांच के टुकड़ों में क़ैद
सैंकड़ों बौने वजूद
मैं खुद के अब किधर रक्खूँ!

मेरे हिस्से की ज़मीं
काफ़ी थी मेरी लाश को,
नाकाम हसरतों से भरी
ऐ ज़िंदगी तू ही बता
मैं तुझको अब किधर रक्खूँ!

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क्या ढूंढते हो मुड़ कर तुम माज़ी के गलियारों में,
वो नक़्श-ए-क़दम वो अफ़साने तो वक़्त ने दफ़ना भी दिए!

कुछ और चलो फिर सोचेंगे किस ठौर पे हमको रुकना है,
जिनकी ख़्वाहिश में निकले थे वो मंज़र तो बिसरा भी दिए!

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मैं देखता हूँ जब तुझे
तो ख़ुद से पूछता हूँ...

कुछ लिखा है तेरी आँखों में
पढ़ना चाहूं कैसे पढूँ...

एक सपना है मेरी पलकों पर
दूं तुझे या ख़ुद रख लूं!

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हम को ना मंज़िलों की
ना सहर की तलाश है,
भटके हैं हम तो दर-ब-दर
ख़ुद की तलाश में!

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जिस रात की कोई सुबह ना हो,
ऐसी भी कहीं एक रात मिले।

कुछ और ना हो उस रात में,
बस तेरी मेरी बात चले।

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ख़्वाबों का एक नाज़ुक सा,
जो सिलसिला तुम से शुरू होता है...

कहीं टूट के बिखर ना जाए,
इसीलिए छूने से उसको डरता हूँ।

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खिलखिलाने का तेरा बेबाक जो अंदाज़ है,
बेहद हसीं, दिलकश और दिलफ़राज़ है।

हंसी में तेरी खनक है और सुर है ताल है,
लबों पे तेरे थिरकता जैसे कोई साज़ है।

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हम को ज़माने भर में
वो बाज़ार ना मिला,
क़ीमत लगाते हम जहां
अपने वक़ार की।

रौंद डाला आशियाँ
एक फ़ागुनी बयार ने,
मिन्नतें भले उसकी
हमने बार-बार की।

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कैसी अजब ये बात है
कि मुख्तलिफ़ होकर भी
कितने यकसां हैं हम-तुम।

कभी-कभी लगता है जैसे
थोड़ा सा तुझ में हूँ मैं
थोड़ी सी मुझ में हो तुम।

*मुख्तलिफ़ = भिन्न (Different)
*यकसां = एक जैसे (Similar)


© गगन दीप