टूटा दिल

जब मांझी ख़ुद ही पतवार जला दे
कौन दिशा पहुंचे फिर कश्ती साहिल को।

ख़ामोश मुंतज़िर

ख़ामोश रहता हूँ
मगर बेख़बर नहीं मैं
मुंतज़िर हूँ तेरा
पर बेसबर नहीं मैं।

छलकते जाम

शिकवा नहीं मुझको ना अब कोई शिकायत है
क्योंकि अब किसी से कोई आस नहीं रखता मैं।

चाँद के उस पार

नक़्श किसी के प्यार के
बिखरे हुए हैं जां-ब-जां
मेरी ज़िंदगी के पन्नों पर।

रात के आँचल से

जो रात के आँचल से निकल के
दबे पाँव उतरा था
मेरे मन के आँगन में
और ठहर गया दो पल को
मेरी अधमुंदी पलकों पे।

ख़्वाब की ताबीर

(एक मज़दूर की ज़ुबानी)

किसी सयाने** ने कहा
के ख़्वाब वो नहीं
जो देखते तुम नींद में
ख़्वाब तो वो है
जो तुम्हें सोने ही ना दे।

लाड़ली

मैं झनकार हूँ जीवन की
मैं फुहार हूँ सावन की
मैं चिड़िया वन-उपवन की
मैं कोयल हूँ नंदन-वन की!

मेरे चंद अशआर - 2

कभी कभी दिल मेरा
मुझसे पूछता है दफ़अतन
किसकी फ़िराक़ में खड़े
किसके मुंतज़िर हो तुम
इस रहगुज़र से आज तक
हो कर नहीं गुज़रा कोई!

*दफ़अतन = अचानक (Suddenly)
*फ़िराक़ = खोज (Search)
*मुंतज़िर = प्रतीक्षा करने वाला (Expectant, One who waits)

यादों की मिट्टी

क्यूं ज़ुबां ठिठक जाती है मेरी रू-ब-रू उनके मुझे क्या मालूम
कितना कुछ कहने को है मेरे दिल में उन्हें क्या मालूम!

ख़्वाब की रहगुज़र

शब-ए-ख़ामोश में
नींद के आग़ोश में
डूबा था मैं जब बेख़बर
मेरे ख़्वाब की रहगुज़र
से कोई हो कर गुज़रा
दबे पॉंव छू कर मुझे
क्या वो तुम थे...?

माँ का आँचल

कितना सुकूं है
माँ के मुलायम आँचल में
जिसमें सिमट कर
हर बच्चे की आँखों में
एक नूर चमकने लगता है
और होठों पे एक मीठी सी
मुस्कान थिरकने लगती है!

© गगन दीप

ख़्वाहिशों का अमल

नग़मा कभी तुम नज़्म कभी हो, कभी रुबाई कभी ग़ज़ल
संगीत सुनाई दे फ़िज़ा में, लहराए जब तेरा आँचल!

कोरा आसमां

तुम...
चले भी आओ
अपनी कमनीय, मधुर
चितवन को बिखरा दो
इन बहकी हवाओं में...

मुस्कान

(एक मित्र की बिटिया की स्मृति को समर्पित)

देखा नहीं जिसको हमने
नज़रों से कभी
जाने कब, कैसे वो
प्यारी सी ‘मुस्कान’...

कितने सच...

एक ज़माना था जब,
सच सिर्फ़ एक
हुआ करता था
उसके सिवा सब झूठ...

तुम

तुम औरों की सब सुनती हो
फिर उनका मर्म समझ कर
जीने का अंदाज़
उन्हें सिखलाती हो,
कभी मुझ से कहो
तुम अपने दिल की बात
किसे बतलाती हो।

ज़िंदगी

सोचा था आसमां को
तराशेंगे हम कभी...
एक मुश्त आसमां को भी
तरसा दिया हमें।

रेशा रेशा ख़्वाब

ख्व़ाहिश थी तुमसे रू-ब-रू दो बात कर सकूँ
मुझसे तो जब मिले तुम एक भीड़ में मिले।

सिंदूरी धूप

मेरे हिस्से की धूप को
मांग में तुम अपनी रख लो
कुछ रंग सिंदूरी हो जाए
फिर लौटा देना मुझको
मैं ओढ़ लूंगा तब इसको
अपनी रातों के साए पर।

गीत

गीत जो बोया बरसों पहले
अधरों पर वो आज खिला है।

मेरे चंद अशआर - 1

ख़यालों के झुरमुट में, एक शक्ल फिर उभर आई,
देखा जो मैंने दूर तक, उफ़क़ पे वो नज़र आई!

डूब कर देखा, जो उसकी नीम-बाज़ आँखों में,
कोई खो गया नशे में, किसी को ज़िंदगी नज़र आई!

बचपन

कभी तो हमसे आ के मिल
ऐ ज़िंदगी
अपनी पुरानी शक्ल
और उस अंदाज़ में
जो छूट गया उस मोड़ पर
जहां बचपन था
मासूम सा अल्हड़पन था
वहां पानी का मटमैला सा
एक टूटा-फूटा जोहड़ था
और उम्मीदों से भरी हुई
काग़ज़ की नावें चलती थीं!

आवाज़

सुनो ग़ौर से तुम अगर
तो हर ख़ामोशी
हरेक सन्नाटे की
आवाज़ होती है...